शून्य द्वारा मानस का मंचन : आंगिक , वाचिक और सात्यिक अभिनय की उज्जवल गाथा
मानस भारतीय मानस में रची - बसी एक पुस्तक l बात कर रही हूँ रामचरितमानस की ...यहीं से शुरू होती है एक लम्बी प्रक्रिया ...रामलीलाओं के मंचन की l भारत में रामलीलाओं का मंचन लगातार और अनवरत होता रहा है और होता रहेगा l दरअसल बारीकी से देखा जाए तो राम वो पुरुष हैं जो समन्वय चाहते हैं ...बिखरे जो हैं उन्हें एक करना और आज इस बिखराव की घड़ी में सबका जुड़ जाना बहुत ज़रूरी है l राम किसी एक खास धर्म या मज़हब के पुरुष नहीं बल्कि वो सबके हिं उनका आचरण ही ऐसा है की सबको एक करता है l बताइए तो कहाँ कुछ ऐसा लगता है जो लोगो को अलग करें ...घर की एकता को बनाए रखने के लिए जो पुरुष वनवास चला जाता है वो क्या चाहता होगा ..दरअसल वो एकता के अलावा कुछ भी नहीं चाहता l रामलीलाओं की परम्परा आज से पांच सौ साल पहले जिस कवी ने चली वो भी एकता ही चाहता रहा ल उसकी नज़र में मंदिर और मस्जिद में कोई अंतर नहीं था वो तो केवल राम के नाम क दीवाना था l गोस्वामी तुलसीदास ने लोक के इस प्रसिद्ध रंगमंच को अभिव्यक्ति दी l जो लोग गाँव से या पुराने क्षेत्रों से सम्बन्ध रखते हैं वो रामलीलाओं को देखकर ही बड़े हुए हैं ...बहुत सी ऐसी रामलीलाएं हैं जो हमारे मन में बसी हुई हैं ...दरअसल यह एक धार्मिक भाव नहीं यह एक परम्परा है जो आगे को बढ़ रही है l शून्य ने इस बार पहली बार रामायण का मंचन दशहरा के दिन किया ..और सही मायने में यह मंचन किसी धार्मिक भाव से प्रेरित नहीं था बल्कि यह उस संस्कृति को दिखाने का एक प्रयास भर था जो भारत की अपनी निजी संस्कृति रही है जिसमें एक दूसरे से प्यार का भाव पनपता है l
उस दिन के मंचन की मैं साक्षी रही हर तरह की जनता का समन्वित प्रेम जो शून्य के कलाकारों के लिए आया वो अनोखा नहीं बहुत अप्रतिम था l
शून्य की कोशिश हमेशा सहज ही होती है और इस दिन को भी खास शून्य ने अपनी सहजता से बनाया l शोर - गुल और पर्यावरण को नुक्सान पहुंचाने वाले तत्वों से दूर यह दशहरा बड़ा खास रहा l राम रावन का समर एक अनोके अंदाज़ में जिसमें अभिनय की प्रधानता रही साथ ही मानस की अवधी की पंक्तियों की गूँज ,,,राम और रावन दोनों ने ही अभिनय की विविध भंगिमाओं से दो महँ योद्धाओं को एकदम सजीव साकार कर दिया l विभीषण का राज्य अभिषेक और लक्ष्मण का अनोखी भाव मुद्राओं में होना दर्शकों के मन को बांधता चला गया l सीता की अग्नि परीक्षा के लिए जिस प्रतीकात्मक और थियेट्रिकल अप्रोच को शून्य ने अपनाया वो बहुत ही प्रयोगशील लगा और सभी दर्शकों ने उसकी भूरी - भूरी प्रशंशा की l प्रशंशा इस अर्थ में की आज भी नारी कहीं ण कहीं उस परीक्षा को देती ही चली आ रही है ...प्र इससे राम और सीता का परम कहीं कम नहीं हो जाता या उसमें गाँठ नहीं पड जाती बल्कि यह कुछ और ही तरह का प्रेम है ...इस प्र कभी विस्तार से बातचीत होगी शून्य की अपने दर्शकों के साथ l रामचरितमानस का मंच लोक रंगमंच है वो आम जनता के लिए और आम जनता के द्वारा है ..आज जिस तरह कहीं - कहीं बहुत ताम - झाम के साथ शोर के साथ रामलीलाएं हो रहीं हैं दरअसल वो रामलीला का सही रूप नहीं ...ये तो बहुत ही मजबूत लोक रंगमंच है जो बहुत ही मजबूत लोक रंग्कलाकारों के मध्याम से भाव अभिनय द्वारा किया जाता रहा l शून्य के कलाकारों ने उस भाव अभिनय को आंगिक , वाचिक और सात्विक के माध्यम से अभिव्यक्ति दी और ज़रुरत पड़ने पर आहार्य को भी अपनाया l
मानस के मार्मिक प्रसंगों का मंचन बहुत ही सुखद अनुभूति देने वाला होता है l राम - रावन युद्ध , विभीषण का राज्याभिषेक , अयोध्या में भरत का राम आगमन की प्रतीक्षा करना और फिर भरत मिलाप ..लगता है मानों सत्व का सोता ही उमड़ आया है l सादे मंच ..पेड़ के तले शून्य द्वारा रामायण का यह मंचन वहां बैठे दर्शकों के हिरदय को छु गया l युवा से लेकर प्रोढ़ दर्शकों तक ने इस प्रस्तुति का हिरदय से स्वागत किया l दर्शकों का यह प्रेम ही है जिसके कारन शून्य इस तरह के प्रदर्शन कर पाता है l इस दिन राम, लक्षमण , सीता जब वन से लौट रहे थे तो जैसे एक छोटी झांकी सी ही बन गयी थी l झांकी और रामलीला का यह रूप अत्यंत गदगद कर देने वाला था l यहाँ जाति- भेद से उपर उठाकर दर्शक केवल कला का मोहक रूप ही देख रहे थे ....
शून्य की कोशिश रहेगी की इस साहित्यिक और लोक कला से मिश्रित प्रस्तुति के प्रयास को वो आगे भी अनवरत रूप से करता रहे l
Comments