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इन्दु जैन: वो गिलोयी मुस्कान - डॉ रमा यादव

( इंदु जैन की 86 वीं जयंती पर उनकी छात्र रहीरमा यादव के लेख।रमा जी मिरांडा में सहायक प्राध्यापक हैं और प्रसिद्ध रंगकर्मी भी हैं)

कौन कितना सफल है और कौन कितना असफल, किसको साहित्य के इतिहास में स्थान मिला है किसको नहीं या किसको कितना यह प्रश्न हमेशा से चलता रहा है और आगे भी चलता रहेगा l अगर लोक की दुनिया में जाएँ तो न जाने कितने कलाकार रहे हैं जिन्होंने हमारे जीवन को आनंदित कर दिया जिन्होंने हमारे जीवन को झूमने का अवसर दिया जिनके रचे गीतों पर हम झूमते हैं और थिरकते हैं l साहित्य की दुनिया है ही ऎसी जहाँ हर कोई तो नहीं पर कुछ लोग तो एक नाम कमाना चाहते हैं कुछ ऐसे होते हैं जो बहुत मन से लिखते हैं और उतने ही मन से उन्हें सदा के लिए स्वीकार भी कर लिए जाता है यश उन तक स्वयं ही चला आता है उन्हें यश तक जाने की ज़रुरत नहीं पड़ती और कुछ ऐसे होते हैं जो पढ़ाकर ही आनंदित हो लेते हैं और कुछ ऐसे जो पढ़ाने के साथ – साथ स्वान्तः सुखाय कुछ सृजित भी करते रहते हैं इन्दु जैन कुछ इसी प्रकार का व्यक्तित्व थीं l मुझे नहीं पता कि यहाँ मैं उनका सीधा नाम लेकर क्यों संबोधित कर रही हूँ क्योंकि वो हमारी प्राध्यापिका थी और यह लिखते समय मेरे मन में उनके कई छवि चित्र तैर रहे हैं l हिन्दी साहित्य का इतिहास पढ़ाते हुए उन्होंने हमें आधुनिक काल पढ़ाया था आधुनिक के अलावा भक्ति काल और आदिकाल हमारी एक अन्य बहुत ही गुणी प्राध्यापिका गुणमाला जी पढ़ा रहीं थी और रीतिकाल कौन पढ़ा रहा था यह मुझे कतई याद नहीं l मुझे याद है इन्दु जैन को देखना एक ‘लाइफ’ को देखना हुआ करता था वो बिजली की तेज़ी से आतीं थीं और कभी – कभी उसी बिजली की तेज़ी से निकल भी जातीं थी लेकिन उतनी ही देर में जो चमक उनसे हमें मिलती थी वो हमारे लिए अनिवार्य थी l उनके खुले-लहराते हुए बाल.... उनकी तेज़ चाल आकर्षित करती थी ...उनके मुख पर सदा ऎसी मुस्कान बनी रहती कि लगता अभी – अभी पान की गिलोयी चबायी है l इन्दु जी के लिए मैं कहूँ कि उनके अंग – अंग से एक जीवन दायिनी रस टपकता था था तो गलत नहीं होगा l उनकी आवाज़ आज भी मेरे कानों में गूँज रही है उस आवाज़ में एक तेज और साहस था जो सदियों से पिछड़ी हुई स्त्री जमात को आगे बढ़ाना चाहता था और वो इसके लिए अपनी तरह से प्रयासरत थीं l इन्द्रप्रस्थ महाविद्यालय लड़कियों का महाविद्यालय है और उनके हाथों से न जाने कितनी होनहार लड़कियां आगे होनहार महिलाएं बनी l दरअसल जब कुछ घटित हो रहा होता है हमें उसका महत्व उतना नहीं पता होता परन्तु जब उससे एक दूरी बन जाती है तब हमें उस बात का महत्व समझ में आता है l मैंने अभी प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया ही था और हमारा स्वागत समारोह था इन्द्रप्रस्थ महाविद्यालय के प्रेक्षागृह में अपनी पहली मंच प्रस्तुति मुझे आज भी ज्यों की त्यों याद है एक बचपना तो होता ही है मैंने ‘सत्यम शिवम् सुन्दरम’ फ़िल्म के एक गीत पर ‘सेमी क्लास्सिकल’ नृत्य प्रस्तुति दी थी और इन्दु जैन मैम ने कहा चाहती हूँ यह परिष्कृत हो आज उस बात का मतलब समझ पाती हूँ l इन्दु मैम ने यह बात कुछ इतने स्नेह से कही कि लगा वो चाहती हैं कि हम म्हणत करें l मुझे याद है जब सन १९९९ के आखिर में मैं जब कुछ समय के लिए इन्द्रप्रस्थ महाविद्यालय में पढ़ा रही थी तो में एक दिन साड़ी पहनकर ख़ूब तेज़ी के साथ अपने कोरिडोर से निकल रही थी तो एक बुलंद आवाज़ पीछे से आई कि रुको ..मैंने पीछे मुड़कर देखा तो इंदु जैन मैम थीं तब तक वो मेरा कंधा पकड़ चुकी थीं l मैंने झुककर प्रणाम किया उन्होंने कहा अरे मैं देखना चाहती थी कि ये कौन है ये तो मेरी ही बिटिया निकली l ठीक यही बार जब मैंने फेयरवेल पर साड़ी पहनी तब भी उन्होंने कही कि बिटिया को सारी में देखकर लग रहा है कि वो सयानी हूँ गयी और चेहरे पर वही गिलोयी मुस्कान थी हिन्दी साहित्य के आधुनिककाल पर दी हुई सामग्री आज भी मेरे पास ज्यों की त्यों सुरक्षित है l


समय बीता कॉलेज से निकल गए और जीवन संग्राम में कूद पड़े l इन्दु जैन मैम ने स्वयं के विषय में कभी कुछ कहा नहीं कि वो क्या – क्या करती हैं l बस हमने उन्हें हवा की तरह आते और जाते देखा एक दिन रेडिओ पर २६ जनवरी की परेड चल रही थी और तब एक जानी – पहचानी आवाज़ कानों में पड़ी परेड के ख़तम होते – होते पता चला कि वो आवाज़ हमारी इन्दु जैन मैम की आवाज़ थी l इसी प्रकार जब एक बार अपने थियेटर गुरु भानु भारती जी से अपने महाविद्यालय और अपनी प्राध्यापिकाओं की बात कर रही थी तो जैसे ही इन्दु जैन मैंम का नाम मैंने लिया भानु सर अपने जापान प्रवास के दिनों की यादों में चले गए वहीँ उनकी मुलाक़ात इन्दु जैन जी से हुई थी उन्हीं से बात करते हुए मुझे पता चला कि इन्दु जैन जी एक बहुत ही संभ्रांत महिला होने के साथ – साथ कवयित्री भी थी और साथ ही सत्तर के दशक की कुछ बेहतरीन हिन्दी फिल्मों के लिए उन्होंने गीतों की भी रचना की अब तो इन्दुजी की एक – एक क्लास मेरे सामने हीर से तैर गयी मैंने कथा और चश्मेबद्दूर फ़िल्म देखी और एक गौरव का भाव मुझमें समां गया कहाँ से आए बदरा घुलता जाए कजरा जिसे यसुदास जी और हेमलता ने गाया है मैंने रेडियो से न जाने किनी बार play किया है और हर बार एक आनंद के भाव से भर गयी हूँ यह गीत हिन्दी सिनेमा के क्लासिक गीतों में सदा सहार किये जाने वाला गीत है अत्यंत ही रोमांचित करता है कि यह गीत जिन्होंने लिखा वह उस महाविद्यालय से सम्बन्ध रखती हैं जिसमें मैं पढी l दरअसल यह हमारे इन्द्रप्रस्थ की परम्परा है कि वहां मौन रहकर काम किया जाता है l जो बहनापा मैंने अपने इन्द्रप्रस्थ महाविद्यालय की प्राध्यापिकाओं में देखा वो एक अलग तरह का बहनापा है जहाँ किसी के भी काम को सहार देने की बात कही जाती है l इन्दु जी काम करती तो अरुणा गुप्ता जी और गुणमाला जी , विजय वाधवा जी ऐसे प्रसन्न होतीं कि जैसे यह काम उन्होंने किया है और अगर अरुणा गुप्ता जी के शब्दों में कहूँ कि इन्दु जी भी ऎसी कि चाहती एक साथ सब ही आगे बढ़ें l


दरअसल इन्दु जैन की उपस्थिथि अपने समकालीनों में कुछ ऎसी थी कि उनका होना ऐसा होता कि वो हलकी खुशी ऎसी दे जाती जिसमें बहुत जिंदगानी होती उन्हीं के शब्दों में कहूँ तो –

पारे सी

थिरक रही

हथेली पर खुशी

क्या करूँ ?

हम उनकी छात्राएं उनकी जिंदगानियां रहीं और उन्हीं को ऊपर उठाने के लिए उनका जीवन रहा l इन्द्रप्रस्थ महाविद्यालय महिलाओं का सबसे पुराना महाविद्यालय है और लड़कियों को गढ़ने का काम ही जैसे हमारी प्राध्यापिकाओं ने ले लिया था l ये वो पीढ़ी थी जिसने अनेक पीढ़ियों की नींव रखी l इन्दु जी की कवितायेँ रोशनी की कवितायेँ हैं जो छनकर अगली पीढी तक जाती है और कई पीढ़ियों को आपस में जोड़ एक आधुनिक विमर्श को भी सृजित करती है l इन्दु जी की कविताओं में वो ध्वनि मिलती है जिसे बाद के समय में विमर्शों के केंद्र में रखा गया मुझे एक कविता याद आ रही है –

मेरे बूढ़े रोशनी - पिए कंधे

तुम्हारे जवान अँधेरे पुठ्ठे

मिलकर ठेल नहीं पायेंगे क्या

सुरंग के निकलने का रास्ता ?

ये वो जगह है जहाँ वो आधुनिक विमर्श में और भी आगे निकल जाती हैं जिस पर अभी चर्चा होनी बाक़ी है और अगर ये चर्चा नहीं होगी तो हमारा समाज वो समता कभी प्राप्त नहीं कर पायेगा जिस समता की उसे दरकार है और जिस समता का वो अधिकारी भी है l इन्दु जी यहाँ अपने बूढ़े कन्त्धों पर बोझ उठाने की बात तो कहती हैं साथ ही वर्तमान के जिन मजबूत जवान अँधेरे पुठ्ठों की बात कर रहीं हैं उसकी गहरायी में जाएं तो पता चलेगा कि वो यहाँ क्या कहना चाहती हैं l ये जवान अँधेरे पुठ्ठे वो हैं जिनसे सिमोन भी संघर्ष कर रहीं थीं और जिनके सामने वो स्त्री को ‘सेकंड सेक्स ‘ की संज्ञा देती हैं इन्दु जी उन जवान पुट्ठों से संघर्ष में साथ उतर आने की बात कुछ इस तरह से कहती हैं ये अनुरोध भी है और आदेश भी और तभी स्त्री और पुरुष के बीच में एक सम भाव सृजित हो पायेगा जिसकी तलाश किसी न किसी रूप में सदियों से हो रही है l


दरसल इन्दु जी की कविताओं में अपार संभावनाएं हैं और इन संभावनाओं की तलाश हमारी ही पीढी को करनी है l शून्य नाटय समूह के साथ उनकी कविताओं को बांचते हुए मुझे उनकी इन कविताओं की संभावनाएं और भी प्रेरित करने लगी एक छोटी सी कविता में जाने कैसे वो इतना कुछ कह जाती हैं –

जब एक चिड़िया

सर पर से उडती है

रंग छोड़ जाती है

हवा में बाल सरसराती

अंदर से खींच साथ ले जाती है

ये जो उत्साह है उनकी कविताओं में ये आज की एक बड़ी दरकार है जब हम प्रकृति से कोसो दूर हो गए हैं ऐसे में प्रकृति की ये सुन्दर कवितायेँ ही हमारे युग की ज़रुरत हैं जिसे इन्दु जी बहुत ही खूबसूरती से समझा जाती हैं l दरसल उन्होंने कविता लिखने के लिए कविता कभी नहीं लिखी वो अपने आप बन गयी और कविता सही कहें तो है भी ऎसी ही जो ह्रदय से स्वतः ही निकल जाए l इन्दु जी की कविता प्रकृति के हर रंग को धुप को , उजाले को , बारिश को अपने में समेटे है और यही रंग इस युग की ज़रुरत है जिन्हें हमें अँधेरे से निकाल लाना होगा और तभी ये जड़ता और उदासी टूटेगी –

इसी अँधेरे में

रंग कहीं होंगे

छू सकती हूँ

देख नहीं

यहाँ भूरी मिट्टी

वहां सरसों तपी हुई

हरे – हरे पेड़

लाल खपरैल

और आसमान भी नीला ही होगा l

इसी अँधेरे में

दीखते हैं तारे


प्रकृति की सी सहजता की ओर तो लौटना है इस मानवीयता को ....यही सहजता हमने खो दी है जो इन्दु जी की कविताओं में कूट – कूट कर भरी है वो जितनी सहज थीं उतनी ही सहज उनकी कवितायेँ भी पर इस सहजता में छिपा एक गाम्भीर्य है और वही रोशनी , पानी , बयार इस युग की आवश्यकता है और खिली रहे वही गिलोयी मुस्कान ....

इतनी सुबह बत्ती मत जलाओ

भीतर की बिजली को उजाले से अँधेरे के लिए रख छोड़ो






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