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कला पर भारी पड़ता समय

Updated: Oct 28, 2020

By Rama Yadav


कला पर भारी पड़ता समय : कलाकार का जीवट ( जो वेतन जीवी नहीं , सिर्फ कला का साधक )

शायर शटर डाउन (नहीं ) ..पंक्तियाँ बा-अदब ..टीकम जोशी के एकल नाटक से ...साभार )

( सलामी उन साथियों को जो केवल कला जीवी हैं अर्थात जो कला से मिलता है वही उनका अपना )

भारत कलाओं का देश है ये मैं ही क्या हम सब जानते हैं बल्कि मैंने इस बात को आप सबके माध्यम से और अपनी पुरानी पीढ़ियों के माध्यम से जाना है l कलाकार वेतनभोगी ज्यादातर नहीं होता क्योंकि कला एक स्वतंत्र विधा है ऐसा माना जाता है ..उसकी कला उसको खाने – खिलाने का माध्यम बन जाती है वो अलग बात है l कलाकार साधक होता है जो लगातार केवल अपनी कला को पैना करता है या यूँ भी क्यों कहूँ बल्कि...वो अपनी कला में डूबा रहता है l इस रिश्ते से मैं कलाकार हूँ और थियेटर करती रही हूँ ये कैसे कहूँ क्योंकि मैं तो मूलतः प्राध्यापक हूँ और अपनी सेवाएं प्रदान करती हूँ और उन सेवाओं के बदले में मुझे पारिश्रमिक मिलता है ..अब सेवाएं मैं कम दूँ या ज्यादा ये मुझ पर है इसकी स्वतंत्रता भी मेरा संस्थान मुझे देता है ..पर हाँ एक निश्चित दायरा जो उसने मुझे दिया है उतना मैं काम करती हूँ, बहुत ईमानदारी से , क्योंकि कलाकार कुछ और नहीं तो ईमानदार ज़रूर होता है l बेशक ये भी सच है कि अगर मैं कलाकार भी हूँ थोड़ा बहुत नर्तन या अभिनय जानती हूँ तो उसके लिए मैंने भी सड़को की ख़ाक छानी है और शायद अपने लिहाज़ से ( कोई उसे माने या न माने ) इस हद तक मेहनत की है कि खुद को घिस दिया है ..इस कलाकार और अध्यापन के क्रम में मै क्या हो पाई और क्या न हो पाई वो मैं नहीं जानती ..हाँ इसी क्रम में मैं एक महिला भी हूँ और भारत की महिला हो या योरोप की ( मैं अपने बुदापेश्त में बिताए अनुभवों के आधार पर कह रही हूँ ) यदि वो वास्तव में महिला है और एक संवेदनशील प्राणी है तो चाहे लाख वो मॉडर्न ..फेस्मिनिस्ट विचारों की हो जाए वो घर का रख – रखाव पुरुष से अच्छा करना जानती है और चाहे लाख समान अधिकारों के कसीदे पढ़े पर घर के कामों में उसकी भागीदारी का पलड़ा पुरुष से भी अधिक भारी पड़ता है ( माफी चाहूंगी ...कुछ अपवाद मिल सकते हैं ...और मिलते ही हैं जहाँ पुरुष महिलाओं से बेहतर घर चलाते हैं , परन्तु आज भी वो अपवाद ही है ) बेशक उसको इस बात का सूकून हो कि उसे घर के कामों में मदद मिल जाती है l इस नाते से रोज़ी – रोटी कमाते हुए और एक स्त्री होते हुए कला से जुड़ना कठिन से भी कठिनतर काम है ये मेरा मानना है हो सकता है आपकी राय इससे अलग हो और मैं आपकी उस राय को सिर और माथे पर रखती हूँ ..प्रिय सखा खफा न हो ये तो सिर्फ विचारों का साझा है l


विश्व किस तरह से एक महामारी की चपेट में आ गया ये केवल एक सपना सा लगता है , न ऐसा सोचा था न ऐसा जाना था पर ऐसा हो गया l देखते – देखते इटली , फ्रांस , जर्मनी , अमरीका , ब्रिटेन और अन्य अनेक देश इसकी चपेट में आ गए हैं l कलाओं का बोहेमियन समाज जो केवल कला – जीवी है ऐसा नहीं है कि योरोप में नहीं है वहां कलाकारों का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो सुबह से शाम तक एक निश्चित समय पर एक निश्चित जगह पर आपको कुछ न कुछ बजाते, बनाते दिखायी दे जायेंगे l उदाहरण के लिए फ्लोरेंस के एक ख़ास ईलाके को केवल चित्रकारों का मोहल्ला माना जा सकता है , इसी प्रकार बुदापेश्त में भी आपको कलाकारों के ऐसे समूह मिल जायेंगें ( भारत में यह तबका अभी तैयार हो रहा है , जो एक विशिष्ट बोहेमियन समाज का प्रतिनिधत्व करता है ) पर विपरीत इसके हमारे यहाँ कलाकारों का एक सेल्फ अनुशासन रहा है जो उनको ख़ास बनता है – विशिष्ट ..वे चाहे लोक कलाकार हों या फिर मंच से जुड़े शिष्ट कलाकार सबका अपना – अपना एक स्टायल ( स्टाइल ) है और उस ख़ास शैली में वो बहुत विशिष्ट हैं l और जब इस तरह के विशिष कलाकारों को मैं किसी भी क्षेत्र में देखती हूँ तो आदर से मस्तक झुक जाता है l


थियेटर क्योंकि मेरा क्षेत्र रहा है ( नौकरी से वेतन लेती हूँ इस स्वीकार भाव के साथ , चाहे यह भी सही है कि कला के लिए मुझे बहुत पापड़ बेलने पड़े और बेल भी रही हूँ ...अपनी इच्छा से ) इसलिए इसे बहुत अधिक नजदीक से जाना है और जाना है उन लोगो को जो कुछ भी करके केवल और केवल रंगमंच से ही जुड़े हैं ..उन्हें जुनून है , उन्होंने ठान लिया था उन्होंने जान लिया था कि उन्हें यही करना है तब भी जब चाहे उनके रास्ते में कांटे बिछ जाएं ..आज संकट के इस काल में अपने उन रंगमंच के दोस्तों के नाम सलाम भेजती हूँ ..ये संकट काल थोड़ा क्या बहुत लंबा हो गया पर अपनी इस कला यात्रा में मैंने उन्हें अपने रंगकर्म के लिए अनेकों बार जूझते देखा है पर उन्होंने अपनी उस टेक को नहीं छोड़ा की उन्हें रंगकर्म ही करना है l इस तरह के व्यक्तित्वों में जो मित्र हैं वो महिला वर्ग से ज्यादा अपुरुष वर्ग में हैं , भारतीय समाज की बनावट आज भी वही है कि हम कितना ही सामान अधिकारों की बात कर लें पर आज भी जब घर चलाने की बात आती है तो महिलाएं यह कहकर पल्लू झटक ही लेती हैं कि यह तो पुरुषों का ही काम है और हमारे साथी बड़ी आसानी से अपने कन्धों पर यह भार ले भी लेते हैं और फिर हलकी से मुस्कान उनके चेहरे पर खेल जाती है , जहाँ व्यंग्य का भाव कतई नहीं बल्कि बहुत ही स्वीकार भाव होता है l


थियेटर के और कला के भी इस संकट काल और आपात काल में मैं उन सभी अपने मित्र कलाकारों और जो मित्र नहीं भी हैं सलामी भेजना चाहूंगी ( जो वेतन जीवी नहीं हैं , या सिर्फ कला से जो प्राप्त है वही उनका साधन ) क्योंकि मैंने बहुत नजदीक से उन्हें लहरों के विपरीत तैरते – उतराते देखा है और बहुत नजदीक से और जानती हूँ कि ये संकट काल है और जानती हूँ कि इस बार भी आप हमारी कला को बचा ले जायेंगे पार ले जायेंगे ...क्योंकि कलाएं सही मायने में आपसे ही जीवन पाती हैं

मैंआपको सलाम करती हूँ

सर्वाधिकार सुरक्षित शून्य थियेटर समूह

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