By Rama Yadav
आजकल जब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से रहे, दिग्गज अभिनेता टीकम जोशी की ‘’ वाल ‘’ पर – ‘शायर शटर डाउन’ देखती हूँ तो कई तरह की सोच में पड़ जाती हूँ , सबसे पहले तो मुझे इस एक पंक्ति में वो अभिनेता दिखाई देने लग जाता है जो केवल और केवल अभिनय और वो भी रंगमंच के अभिनय से जुड़कर चला है l दरअसल अभिनय का प्रयोग मैं यहाँ केवल मंच पर रहने के अर्थ में नहीं कर रही क्योंकि जब अभिनय की बात करते हैं तो मंच पर का अभिनय संभव बहुत सारी चीजों से मिलकर होता है उन बहुत सारी चीजों में एक स्क्रिप्ट आती है , स्क्रिप्ट है तो निर्देशक आता है , या हो सकता हो कि जो निर्देशक है उसी की स्क्रिप्ट हो और वो ही अभिनेता हो पर बात यहाँ से आगे बढ़कर जाती है , नाटक में कई अन्य अभिनेता भी तो होते हैं ..फिर ये भी हो सकता है कि नाटक सोलो हो माने एकल अभिनेता द्वारा किया गया एक्ट हो..जैसे कि ‘शायर शटर डाउन’ ..पर बात फिर वहीँ आ जाती है , एकल अभिनय के लिए भी तो प्रेक्षागृह , दर्शक , अन्य अनेक मदद जो सीधे अभिनय से न जुड़ी हों ..और फिर लाइट्स ...फिर म्यूजिक ..फिर छोटा मोटा या बड़ा जैसा भी हो सेट ...जब भी शयर शटर डाउन देखती हूँ तो अभिनय की दुनिया ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया जिस समस्या , जिस त्रासदी से इस समय जूझ रही है वो दिख जाता है l सामने आ जाता है ‘शायर शटर डाउन’ का शायर , उसकी यात्रा , उसकी यात्रा उसके खुद के भीतर बाहर की यात्रा , उसकी यात्रा जो वो दर्शक के भीतर बहार करता है , उसकी क्रियाएं जो उसमें ही बहुत कुछ को नहीं तोड़ देती जो दर्शकों में बैठे कई एक दर्शकों को भीतर बाहर से तोड़ कर रख देती हैं l क्या यही कारण है कि जितनी भी बार ‘शायर शटर डाउन’ देखा मैं कसी दूसरे टीकम को याद करती रही , मतलब टीकम के उन अभिनयों को याद करती रही जिसमें जीवन के एक से ज्यादा रंग थे , मैं याद करती रही सीमापार , मैं याद करती रही जानेमन , मैं याद करती रही उत्तर रामचरितम , मोहन राकेश की वो कहानियां जिसमें टीकम ने अभिय किया , मैं याद करती रही बापू , अंधायुग , तुगलक , सूरज का सातवाँ घोड़ा और भी न जाने क्या – क्या जो टीकम ने मंच पर उतारा ..पर मुझे ‘शायर शटर डाउन’ में वो रंग नहीं मिलता ..तब मन करता सब तो सही है , फिर क्या ..इस नाटक को देखकर मैं इनती अव्यवस्थित क्यों l और फिर जब मैंने इस नाटक को दस – ग्यारह साल के दो बच्चों के साथ देखा तो वो इसे देखकर बहुत खुश ..टीकम उनका उसी तरह पसंदीदा कलाकार हो गया जैसा मेरा हुआ करता है , वो खुश तो मैं शायर को देखकर इतना दुखी क्यों l
शायर को पुनः – पुनः देखकर वही भयानकता , वही अजनबीपन , वही संत्रास , वही कुंठा क्यों ..और आज करोना के इस समय में जब एक घर में बंद होकर रह गए हैं वही संत्रास , वही कुंठा , वही घुटन , वही भयानकता , वही अजनबीपन ..क्या हमारा बाल समाज उस अकेलेपन को एन्जॉय तो नहीं करने लगा है जो उसे विरासत में हमने दिया है ..यहाँ राजेश जोशी की वो कविता भी याद हो आती है , जिसमें घर में ईन – मेंन – तीन जन ..माता – पिता ,बच्चा , ज़्यादा हुआ दादा – दादी , या फिर नाना – नानी ..इतना सा संसार ..बाकि संसार जो उसे मिलता है वह तो न उसका स्पर्श कर सकता है , न घ्राण इन्द्रियों से उसका ग्रहण कर सकता है ये दो इन्द्रियां भी तो बहुत महत्वपूर्ण हैं l हर दम , हर समाचार उन्हें आभासी संसार से मिल रहा है , और वो आभासी संसार को एन्जॉय भी करने लगे हिन् , बाहर की दुनिया की उन्हें ज़रुरत ही महसूस नहीं होती l शायर का सेट , शायर की लाइट्स सब बहुत अच्छा है , तभी तो शायर आगे बढ़ता है , वो म्युज़िक , टीकम का वो अभिनय , पर एक अजीब सी बेचैनी , एक भाग जाने का मन ..फिर – फिर कोई बैठाता है वो है टीकम जोशी का अभिनय ..यार यही तो होना चाहिए ...आप जिन्हें देख रहे हैं वो एक बेहतरीन अभिनेता हैं और वो जो कर रहे हैं वो एक बेहतरीन अभिनय है ..पर जैसे – जैसे वो यानि शायर अपने निजी ‘’ मैं ‘’ का विस्तार करता है – छोटे शहर से बड़े शहर में आता है , और फिर एक दौड़ में फंसकर रह जाता है तो यहाँ एक ही आदमी के तीन हिस्से हो जाते हैं l एक ही आदमी के तीन हिस्से और साथ ही साथ उस आदमी को मंच पर उतार रहे अभिनेता यानी की टीकम जोशी जी ने भी अपने को तीन हिस्सों में बांटा होगा l ये यात्रा निश्चित रूप से मुश्किल यात्रा रही होगी l एक शायर का एक छोटे शहर से बड़े शहर में आ जाना और फिर वहां आकर एक मशीन का पुर्जा हो जाना l छोटे शहर का शायर अभी भी उसमें हैं , बड़े शहर में आकर उसको अपना रूप बदलना पड़ा है और जब वो व्यवसाय करने लगता है तो जैसे ..बिलकुल ही बदल जाता है l नाटक का एक दृश्य बार – बार मन के अंदर झांकता है वो ये कि उसे घर जाने और आने में ही आधा जीवन बीतता सा लगता है , जिन्दगी इतनी मशीन हो गयी है , जीवन में एकरसता आती चली गयी है , जीवन का रोमांस – रोमांच ख़तम ..बस वही एक ही ढर्रे पर जिन्दगी बढे जा रही है l उसी एक छोटे कस्बे वाले शायर के भीतर से इतने ‘’में ‘’ निकलते चले जाते हैं और अभिनेता का कमला देखिये कि वो उन सभी ‘’मैं ‘’ को अभिव्यक्ति देता चला जाता है l कैसे तो वो वो शरीर भंगिमाएं इजाद की होंगी , जो मशीन हो जाते ‘’मैं’’ को दर्शाती हैं जिसमें उस छोटे कसबे के शयर की सारी ख्वाहिशें चकनाचूर हो जाती हैं l किस तरह से एकदम अकेला , वो शायर जिस तिस के साथ मिलकर ..बांटकर अपने उस अकेलेपन को दूर का लेना चाहता है l इस एकल अभिनय में अपने उस अकेलेपन को बाँट लेने के लिए शायर ने जो स्थितियां क्रियेट की हैं वो दिल को छु जाती हैं l शुरू में ही एक स्ट्रीट डॉग से बातचीत का दृश्य आता है , बीच में गुबारों के प्रयोग से उस अकेलेपन को तोड़ने की भरपूर कोशिश शायर ने की है l और फिर धधकते अकेलेपन को खुद से ही खुद को बांटने के लिए वो अपने भीतर से ही एक ‘’ मैं ‘’ की सृष्टि और करता है और फिर उससे बातचीत l शहरी ज़िन्दगी जो इतनी अकेली होती जा रही थी उसका कुछ अंश हमें शायर में देखने को मिलता है जो भरे हुए ‘ माल ‘ में भी खुद को अकेला पा रहा है ..वो शायर है वो कोमल भावों का है , लेकिन उसका स्थानांतरण एक ऎसी जगह हो गया है , जहाँ के लोग इस कोमलता और भावनात्मक जगत के लिए समय ही नहीं निकाल पाते l आज करोना के इस संकटकाल में मुझे ‘ शायर शटर डाउन ‘ की प्रासंगिकता और भी समझ आ रही है , जहाँ हम अपने – अपने घरों में खुद पर शटर डाल कर पड़े हैं , लोगो ने एक दूसरे से दो- दो गज की दूरी बना ली है और वो दूरी ज़रूरी , क्योंकि यदी वो दूरी हम नहीं बनायेंगे तो बीमार हो जायेंगे l ‘ शायर शटर डाउन’ देखते हुए जो अजनबीपन , भय , निराशा हाथ लगती थी , जो संत्रास देखने को मिलता था वही आज हम देख रहे हैं , और अभी जब इसके परिणामों की ओर देखना सोचना शुरू करते हैं तो पता नहीं कितने अजनबीपन और पीड़ा से अभी हमें और गुज़रना है ऐसा लगता है l दरअसल मुझे अब लगता है कि शायर शटर डाउन में टीकम किस दुनिया और किस अजनबीपन की ओर हमें ले जने की कोशिश कर रहे थे , जो धीरे – धीरे हमारे समाज में इस कदर हावी होता जा रहा था , जसिसे हमारी संवेदनाएं मरती जा रही थी l हमारे समाज का बाल वर्ग इस अकेलेपन की चपेट में हमारे देखते – देखते आ रहा है l और आज इस संकट के काल में ये नाटक हमें ये सोचने पर मजबूर कर रहा है , कि वो हम ही तो नहीं , जिसके चलते संकट का ये काल हम पर काबिज़ है l शायर शटर डाउन एक अत्यंत ही गुम्फित नाटक है और चिंतन के स्तर पर यह बहुत ही ‘mature’ सोच का परिणाम है l कितनी ही बार शायर खुद में घुल
ता है , कितनी ही बार वह खुद से तटस्थ होता है , कितनी ही बार दर्शकों को खुद से विल्गाता है , और कितनी ही बार उन्हें खुद से साधारणीकृत करवाता है , दरअसल यह अभिनेता टीकम जोशी का ऐसा नाटक है जो हमें अभिनय की विभिन्न थ्योरीज़ से मिलवाता है , और सोचने पर मजबूर करता है l आज के युवा नाटककार – अभिनेता को यह नाटक ज़रूर देखना चाहिए l मुझे लगता है शायर का शटर डाउन मुश्किल
सर्वाधिकार सुरक्षित शून्य नाट्य समूह
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