प्रेम कविता के नाम से ए दोस्त मुझे गरियाना न ...
हम लाँघ आए रीतिकाल को रूढ़ियों को तज दिया हमने प्रेम को भी 'मुक्त करवा लाए '
नए - नए फतवे गढ़ लिए हमने अब हम आधुनिक हैं आज मैंने अपने गिरेबान में झांककर देखा चाक़ू की धार को अपने गले पे धर
एक सवाल पूछा -
पूछा कि - ''क्या प्रेम कर पाया तू या किसी को प्रेम करते देख पाया ?
चाक़ू अब भी गले पे धरा था मैं होल से बोला -
कहाँ जी .... मै तो दूसरों की काना फूंसी कर उन्हें डराता - धमकाता ही रहा प्रेम कहाँ ही कर पाया - और तो और प्रेम करने भी कहाँ दिया किसी को
चाक़ू की धार गले पर कुछ तेज़ सी लगी मैं घबरा कर बोला -
'' मैंने प्रेम को मुक्त नहीं किया जी .. मैंने तो उसे कस डाला ये प्रेम है ये प्रेम नहीं है .. के बंधनों में ...''
मैंने उसकी घेराबंदी नाककबंदी कर दी नाक भौं सिकोड़ उसकी बदनामी कर उसे देशनिकाला दे उसका खून कर दिया ...
मेरे हाथ से चाक़ू छूट गया मेरी ज़बान सच बोल रही थी मैंने प्रेम को मार डाला था
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