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प्रसन्ना का सीमापार

Updated: Oct 28, 2020

By Rama Yadav


प्रसन्ना का सीमापार : भारतेंदु हरिश्चंद्र का मृत्यु से संवाद


नाटक पर लिखने की तमन्ना कब नहीं हुई l यूँ कहूँ कि हमेशा रही और लिखा भी ..थोड़ा या कम हमेशा ही लिखा ..एक नाटक जो ज़हन को बार – बार कुरेदता है और जिस पर लिखने की कामना को अब एक अरसा हो गया पर लिख नहीं पाई , वो नाटक है नाट्य निर्देशक और नाटकार प्रसन्ना का ‘सीमापार’ – ये बात शायद सन २००२ के नवम्बर के आस – पास की है जब इस नाटक को पहली बार देखा ..और मैंने तो अंतिम बार l उसके बाद मुझे इस नाटक को देखने का अवसर नहीं मिला पर ये नाटक मेरे ज़हन में इस तरह से छप गया कि इस नाटक को मन से धूमिल कभी नहीं कर पाई l यूँ भी जब एक निर्देशक नाटक को दर्शक को दे देता है तो फिर वो नाटक उस निर्देशक या नाटककार का नहीं रह जाता बल्कि ये दर्शकों का हो जाता है और कौन सा दर्शक उस नाटककार से क्या प्रभाव लेकर जाता है ये उस निर्देशक को भी याद नहीं रहता और न ही वो जानना चाहता है क्योंकि वो तो इसे सौंप चुका है l इस नाते से मुझे लगता है कि नाटक सबसे पवित्र कला है यूँ ‘पवित्र’ शब्द का आज अपने में कोई मायने नहीं रह गया है और मैं भी इसका उपयोग पुरातन पंथियों के सन्दर्भ में नहीं कर रही बल्कि एक बहुत ही ‘यूनिक’ अर्थ में कर रही हूँ l सन २००२ से अब तक यानि की लगभग दो दशक का समय व्यतीत हो चुका है , नाटक में इतनी गहरायी थी कि उसके बिम्ब यदा – कदा मस्तिष्क में कौंध जाते हैं l यहाँ आज के और बीस साल पुराने थियेटर का भी अंतर थोड़ा स्पष्ट होता है आज जो नाटक हो रहें हैं उनमें से कई सारो में तो आसानी से फिल्मी गीत और संगीत को ले लिया जाता है ..और इस पर मुझे हमेशा से ही एतराज़ रहा है और होना भी चाहिए..क्यों न हो ? नाटक एक ऎसी कला है जो मेहनत मांगती है और वो मेहनत उसके गीत – संगीत में भी होती है ..यदि बहुत पॉवर फुल स्क्रिप्ट है , पर निर्देशन उसके जोड़ का नहीं ..तो भी यदि गीत – संगीत अच्छा है तो दर्शक उससे बंध जाते हैं l आप कहेंगे कि क्यों बंध जाते हैं , तो उसका जवाब नाट्यशास्त्र में दिया गया है और वो जवाब यह है कि दर्शक सहृदय होता है और सह्रदय का मतलब ही है कि वह नाटक देखने ही इसलिए आता है कि उसे नाटक पसंद है और वह और कलाओं यथा सिनेमा के दर्शक से अलग हैl बहुत नाटकों को देखते हुए मैंने यह महसूस किया कि नाटक की ब्लोकिंग आदि कुछ भी सही नहीं , अभिनेताओं का उच्चारण ठीक नहीं परन्तु अंत में एक सुंदर संगीत बजते ही दर्शक निर्देशक की सारी भूल भुला देते हैं और प्रेक्षाग्रह में तालियाँ बज उठती हैं और तब लगता है कि यार ऐसा हुआ क्या ? आज इस तरह के नाटक भी हो रहे हैं ..और यहीं हमें उन नाटककारों और निर्देशकों के नाटकों को याद करना आवश्यक हो जाता है जो नाटक न जाने किस लगन से करते थे ..वो लगन कुछ अनूठी ही होती थी और उन्हीं में से एक हैं प्रसन्ना l

यह सचमुच हैरानी की बात है कि आप किसी नाटककार का एक नाटक देखें और वह नाटक दो दशकों तक आपके दिलो दिमाग पर छाया रहे l ऐसा क्या था उस नाटक में ? सबसे पहली बात तो उस नाटक का ‘ कंटेंट ‘ ऐसा था कि उससे आने वाली पीढियां लगातार और बारम्बार ही सीखती रहेंगी क्योंकि उसमें युगप्रवर्तक साहित्यकार भारतेंदु को अत्यंत ही सूक्ष्मता के साथ नाटककार ने बिम्बित किया है l प्रसन्ना इस नाटक को लिखते भी है और निर्देशित भी करते हैं तो इसका कोई तो अर्थ रहा ही होगा और वह अर्थ यह है कि कन्नड़ भाषा का यह साहित्यकार – नाटककार ( प्रसन्ना ) भारतेंदु के अवदान को भारतीय नाट्य साहित्य में अत्यंत ही बेहतरीन तरीके से समझ रहा था l वो इस बात को समझ रहा था कि नाटक की जो परम्परा छठी शताब्दी के बाद मंच से, यहाँ ध्यान देने की आवश्यकता है कि हम शिष्ट मंच की बात कर रहे है – लुप्त प्राय हो गयी थी ( क्योंकि लोक नाटक लगातार हो रहे थे ) उसे पुनः प्रतिष्ठित करते हैं युगप्रवर्तक साहित्यकार और नवजागरण के अग्रदूत भारतेंदु हरिश्चन्द्र l यह वह कदम था जिससे नाटक एक बार फिर केंद्र में आता है और आज जिस नाटक पर भारत में चर्चा – विमर्श ..और भारतीय रंग महोत्सव जैसे कार्यक्रम होते हैं उनका बीज वहां पड़ता है l

प्रसन्ना के सीमापार की इतनी चर्चा इसलिए भी कि यहाँ निर्देशक की सजगता की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करवाने की कोशिश है और वह यह की निर्देशक नाटक का चुनाव यूँ ही नहीं कर रहा वह सजग है अपने चुनाव के प्रति और यही सजगता उससे नाटक लिखवाती है l सजगता इस बात की भी कि वो आने वाली पीढ़ियों को नाटक की यति – गति के साथ एक महत्वपूर्ण कंटेंट भी देना चाहता है उसके भीतर कुछ भर देना चाहता है या फिर वो खुद ही भीतर से भारतेंदु के दाय के प्रति इतना भरा है कि सीमापार लिखकर उस ऋण से हलका सा उऋण हो जाना चाहता है l प्रसन्ना का यह नाटक एक – एक करके बहुत से दरवाजों को खोलता चला जाता है l भारतेंदु के बारे में हम जितना लिखते – पढ़ते हैं उसका शायद कोई भी हिस्सा प्रसन्ना से छूटा नहीं है , शायद नहीं प्रमाणतः नहीं छूटा , बल्कि भारतेंदु के उस युग को समझने और बनावट देने वाले रूप को लेखक निर्देशक प्रसन्ना ने बहुत ही अद्भूत तरीके से रेखांकित किया है और इस नाते से सीमापार यधपि बहुत कम हुआ है और मुझे ज्ञात नहीं कि इसकी स्क्रिप्ट भी छपकर आई है या नहीं पर थियेटर की दुनिया में यह एक ‘ क्लास ‘ रचना अवश्य बनती है l

दरअसल भारतेंदु हिन्दी के वह साहित्यकार है जिनकी दृष्टि साहित्य के चहुमुखी विकास पर थी l उस समय भारतेंदु उन विरल साहित्यकारों में थे जो पत्रकारिता , कविता लेखन , समाज सुधार सभी से सामान रूप से जुड़े थे l और यही वो साहित्यकार भी था जिसने न जाने कितने अंतराल के बाद नाटक का अपना एक समूह तैयार किया था ये वो साहित्यकार था जो नाटक के माध्यम से अंग्रेजी राज का तख्ता पलट देना चाहता था या कम से कम भारतीय जनता को जागरूक तो कर ही देना चाहता था l नाटक के माध्यम से इसलिए क्योंकि पराधीनता के उस युग में जहाँ की जनता पढ़ने – लिखेने में उतनी समर्थ नहीं थी नाटक ही वह माध्यम था जो जनता के ज़हन में सीधे उतर सकता था और भारतेंदु अपने नाटकों अंधेर नगरी , भारत – दुर्दशा ( तथा अनेक अन्यों ) की रचना ऐसे करते हैं कि वो कहीं भी किसी भी मंच से सुचारू रूप से प्रदर्शित हो सकें l बनारस के न जाने कितने ही घाटों पर अंधेर नगरी खेला गया होगा ..सबसे पहले उसे काशी के दशाश्वमेघ घाट पर खेला गया था और न जाने कितनी ही जनता अपने लिए , अपने समाज और अपने आस – पास के लिए इन नाटकों को देखकर जागरूक बनी होगी l

प्रसन्ना ने भारतेंदु के इस रूप का बहुत ही गहनता से अध्धयन किया था और भारतेंदु का यह रूप प्रसन्ना के भीतर कहीं गहरे ही धंसा होगा तभी सीमा पार के रूप में इतना कीमती नाटक दर्शकों के सामने आता है l इस नाटक में भारतेंदु का मृत्यु के साथ संवाद है l मृत्यु से संवाद कितना गहन कथानक ..भारतेंदु मृत्यु को अपनी ड्योढ़ी पर ही रोकर रखते हैं और मृत्यु भी तो देखिये कैसे शालीनता से वही रुकी रहती है l कारण भारतेंदु अपने जीवन के अंतिम दिनों में नाटक नामक निबंध पर काम कर रहे थे l हिन्दी में नाटक की परम्परा तो वो फिर से आरम्भ कर चुके थे , नाटक को मंच पर भी ला चुके थे परन्तु अभी नाटक के सम्बन्ध में चिंतन पक्ष अधूरा था उस पक्ष को पूरा करने के लिए भारतेंदु नाटक नामक निबंध की रचना में लगे थे l यह वो निबंध है जो हिन्दी में नाटक समालोचना या आलोचना का पहला हस्ताक्षर बनता है l यह वह समय था जब अभी सम्पूर्ण भारत में हम साहित्य की दुनिया में कविता से निकलकर गद्य की तरफ आये थे अर्थात बोलने की भाषा की तरफ l समय आसान नहीं था , भारतेंदु इतनी आसानी से मृत्यु का वरण नहीं कर सकते थे ..कारण साफ़ था वो नाटक को लेकर अपने किये गए कार्यों को अधूरा नहीं छोड़ सकते थे l उस समय भारतेंदु का यह निबंध अधूरा था ...

मृत्यु से भी यह युग प्रवर्तक संवाद स्थापित करता है , और उस समय अपने स्वास्थ्य की चिंता किये बिना रात – दिन एक कर किस प्रकार संस्कृत के बाद नाटक की यह पहली समालोचना तैयार होती है इसको प्रसन्ना ने पोरी नाटकीय मार्मिकता के साथ चित्रित किया है l भारतेंदु का भारतीय नाट्य साहित्य की दुनिया में अमिट स्थान है परन्तू उनकी काफी बाद की पीढ़ी के एक नाटकार का भारतेंदु के इस दाय पर इस तरह से कलम चलाना अत्यंत उत्साहित करता है और नाटक करने वालों के सामने एक ऐसा आदर्श उपस्थित करता है जो विरल है l हर्तेंदू का व्यक्तित्व एक छोटे से जीवन काल में नाटक की एक अतिविस्त्र्ट और सुदृढ़ भूमि तैयार कर देने वाला व्यक्तित्व है जिसे प्रसन्ना का नाटककार और निर्देशक मन वर्तमान तक इस तरह से लाता है और इस दृष्टि से प्रसन्ना का सीमापार भारतीय नाट्य साहित्य में सदा के लिए एक अलग ही इम्पक्ट छोड़ने वाला नाटक बनता है जो दर्शकों को बहुत दूर यानि कि १८७० के दशक में ले जाता है जहाँ आधुनिक हिन्दी नाटक के जनक नाटक को गढ़ने में लगे हुए जानते थे क्योंकि वो जानते थे कि नाटक साहित्य की होते हुए भी साहित्य से इतर एक अनिवार्य विधा है ..उनकी नट सम रिझवन की टेक को प्रसन्ना ने अपने लेखन और निर्देशन में बहुत ही बेहतरीन तरीके से उजागर किया है l भारतेंदु वो ही साहित्यकार हैं जो कहते हैं - ‘’उठहु छाडि बिसराम ‘’ प्रसन्ना ने जैसे भारतेंदू के इस कथन को मंच पर मूर्तिमान कर दिया l

इस नाटक में भारतेंदु की मुख्य भूमिका में उस समय के राष्ट्रीय नाटय विद्यालय के रंगमंडल के आसिफ और टीकम जोशी रहे दोनों ही अभिनेताओं ने भारतेंदु की भूमिका के साथ पूरा न्याय किया l इस दृष्टि से यह नाटक नाटककार और निर्देशक के नाटक के प्रति समर्पण का एक महत्वपूर्ण उदाहरण बनकर थियेटर की पीढ़ियों के सामने आता है l

सर्वाधिकार सुरक्षित शून्य के लिए

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