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शून्य नाट्य समूह पर अपूर्वा बिश्नोई की एक़ रिपोर्ट

Updated: Jan 19, 2021

अपूर्वा ने दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में स्नातक किया है साथ ही वह शून्य नाटय समूह के प्रत्येक मंचन की साक्षी भी रहीं हैं l अभी वह दिल्ली विश्वविद्यालय से ही अपना स्नातकोत्तर कर रहीं हैं l

थियेटर और नाट्य ने मुझे हमेशा ही फ़ैसिनेट किया है। थियेटर को क़रीब से जानने-समझने की इच्छा सदा से मन में थी, जो बतौर दर्शक 'शून्य' से जुड़कर पूरी हुई। एक दर्शक और श्रोता के तौर पर किस तरह 'शून्य' की रचना-प्रक्रिया को समझा है, किस तरह 'शून्य' की प्रस्तुतियाँ मन की गहराइयों में बसी हैं — बस वही आपसे साझा करना चाहूँगी।

'शून्य' की रचना-प्रक्रिया की परिधि में इतिहास और वर्तमान एक-दूसरे में बहुत ख़ूबसूरती से घुल-मिल जाते हैं। वर्तमान में जिन प्रश्नों से हम जूझ रहे हैं, उन्हें संबोधित करते हुए 'शून्य' भारतीय संस्कृति, परंपरा और लोकमानस की गहनता से दर्शकों को परिचित करवाता है। 'कबिरा खड़ा बाज़ार में',‌ 'अंधा युग', 'कोणार्क', 'आषाढ़ का एक दिन' की प्रस्तुतियों से 'शून्य' न सिर्फ़ भारतीय संस्कृति और इतिहास के प्रति एक गहरी अंतर्दृष्टि देता है, बल्कि आज के बड़े प्रश्नों को भी संबोधित करता है। उदाहरणतया 'कोणार्क' के मंचन के साथ 'शून्य' न केवल कोणार्क के सूर्य-मंदिर की इतिहास-कल्पना मिश्रित झाँकी दिखाता है, अपितु शिल्पियों की समस्या को सामने रखकर आज के कामगार, मेहनती, परिश्रमी वर्ग से भी जुड़ जाता है।

'आषाढ़ का एक दिन' शून्य की बहुत ही ख़ास प्रस्तुति है। महाकवि कालिदास के प्रति मल्लिका के उदात्त प्रेम की इस गाथा को 'शून्य' ने जब भी मंच पर उतारा है, हर बार कुछ अलग और निखरे रूप में यह सामने आई है। विशेष बात यह कि हर रूप में प्रस्तुति उतनी ही सुन्दर रही है। कविता का रंगमंच 'शून्य' की अपनी विशिष्टता है। 'प्रलय की छाया', 'असाध्य वीणा' आदि कविताओं के सफल मंचन से 'शून्य' ने यह सिद्ध किया है कि अच्छे निर्देशन, अभिनय और संगीत-प्रकाश-संयोजन के साथ कविता भी रंगमंच की उतनी ही हो जाती है जितने कि नाटक। 'आरोहण' उत्सव का आयोजन कर 'शून्य' कहानी और कविता के मंचन को एक प्लेटफ़ाॅर्म देता है और इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

वर्तमान समय में रंगमंच पर जहाँ ज़्यादातर विदेशी नाटकों का मंचन हो रहा है, वहीं 'शून्य' महाकवि कालिदास को महत्ता देते हुए क्लासिक महाकाव्य 'मेघदूत' को मंच पर लाता है और संस्कृत वाङ्‌मय के महान आदर्शों को उनकी पूरी महानता के साथ दर्शक वर्ग तक पहुँचाता है। 'शून्य' ने 'मेघदूत' को संस्कृत के साथ-साथ हिन्दी में भी उठाया और एक सम्यक प्रस्तुति दी। संस्कृत महाकाव्य की प्रस्तुति निस्संदेह चुनौतीपूर्ण रही होगी, मगर 'शून्य' ने नृत्य, संगीत और प्रकाश के अद्भुत संयोजन के साथ उसे न सिर्फ़ मंच पर, बल्कि दर्शकों के ज़ेहन में भी उतार दिया। 'मेघदूत' के मंचन के माध्यम से प्रकृति और मनुष्य के गहरे संबंध को अभिव्यक्ति दी गई है। साथ ही भारतीय मनीषा की विशिष्टता 'भूमा-दर्शन' खुलकर सामने आता है। एक तरह से व्यष्टि से समष्टि की यात्रा 'मेघदूत' में नज़र आती है और इसके मंचन के साथ ही 'शून्य' दर्शकों को भी इसी यात्रा पर ले चलता है।

'शून्य' ने हमेशा रचनाओं को मूल रूप में मंचित करने पर बल दिया है। प्रस्तुति के दौरान स्क्रिप्ट में से एक भी शब्द इधर-उधर न होने देना 'शून्य' की ख़ासियत है। अपने बेहतरीन निर्देशन और मार्गदर्शन से रमा मैम कलाकारों को उनकी विभिन्न क्षमताएँ पहचानने में मदद करती हैं, साथ ही उनकी कला को मांजकर ख़ूब निखारती हैं। यह मैम का निर्देशन और आशीर्वाद ही है कि 'शून्य' की हर प्रस्तुति एक अद्भुत सामूहिक प्रयास के रूप में मंच पर आती है। प्रस्तुति की इस सामूहिकता में भी हर कलाकार अपनी ख़ास, अनूठी छाप छोड़ता है। एक और बात जो 'शून्य' को बहुत शक्ति देती है, वह है — 'टीम वर्क'। टीमवर्क और ग़ज़ब की कैमिस्ट्री — मंच पर भी और मंच के पीछे भी — 'शून्य' के कलाकारों में बख़ूबी नज़र आती है। ऊर्जा, समर्पण और कला के प्रति निष्ठा में 'शून्य' के सभी सदस्य पोर-पोर भीगे हैं और अपनी प्रस्तुतियों के द्वारा इसी ऊर्जा का संचार वे अपने दर्शकों में भी कर देते हैं।

अभिनय के सभी रूपों (आंगिक, वाचिक, सात्त्विक, आहार्य), संगीत और प्रकाश योजना के बेहतरीन समन्वय से जो प्रस्तुति फूटती है, उसमें 'शून्य' के सभी सदस्यों की मेहनत और उनके स्वेद का कण-कण दर्शकों द्वारा देखा और अनुभव किया जाता है। 'शून्य' ख़ासतौर पर ऐसी रचनाओं को उठाता है जो सीधे-सीधे समाज से जा जुड़ती हैं और इनके माध्यम से न सिर्फ़ जागरूकता पैदा करता है, बल्कि सजग-सचेत दर्शकवर्ग को भी 'एक' करता है।

आज जब इस नाज़ुक वक़्त में हम सभी मजबूरन एक-दूसरे से दूर हो गए हैं, 'शून्य' अपने यूट्यूब पॉडकास्ट के माध्यम से दर्शकों से लगातार जुड़ा हुआ है और 'थियेट्रिकल ऑडियो आर्ट' उनके सामने रख रहा है। अद्भुत वाचन और बेहतरीन ध्वनि-संगीत संयोजन के मेल से ये प्रस्तुतियाँ श्रोताओं के दिल को छू जाती हैं। अज्ञेय, कुंवर नारायण जैसे महान साहित्यकारों की कविताओं को बख़ूबी प्रस्तुत करके 'शून्य' साहित्य के प्रति श्रोताओं के रुझान को बढ़ाने में अहम योगदान कर रहा है।

इसके अलावा 'बाज़ार', 'शहर' जैसी बेहतरीन कविताएँ भी श्रोताओं के समक्ष प्रस्तुत की गईं। लघुकथा वाचन को भी थियेट्रिकल आयाम देते हुए 'शून्य' ने 'पीली भीत', 'काला छाता', 'नीली गुड़िया', 'कठपुतलियों की दुनिया', 'एक नज़र' आदि कहानियों की भावपूर्ण प्रस्तुति दी और मानव-मन की संवेदनाओं को परत-दर-परत उघाड़ कर श्रोताओं के सामने रख दिया। इन प्रस्तुतियों के माध्यम से 'शून्य' ने न सिर्फ़ ऑडियो थियेटर का संस्कार किया, बल्कि मुश्किल वक़्त में सकारात्मक ऊर्जा का संचार भी किया। 'बातचीत' श्रृंखला के माध्यम से 'शून्य' प्रसिद्ध रंगकर्मियों की रंगयात्रा और रचनानुभवों से दर्शकों को परिचित करवा रहा है।

इसके साथ ही 'शून्य' ने समय की नब्ज़ को टटोलने वाले बेहद सच्चे और बेबाक कवि-नाट्यकार बर्तोल्त ब्रेख़्त की कविताओं को उठाया। ब्रेख़्त की कविताएँ जीवन का यथार्थ चित्रण करती हैं। साथ ही मनुष्य में कर्तव्यबोध उत्पन्न करती हैं। इसी कारणवश ब्रेख़्त आपके-हमारे-सबके अपने हो जाते हैं और मन को बहुत गहरे छू जाते हैं। उन्हें श्रोताओं तक पहुँचाने की 'शून्य' की कोशिश सराहनीय है।

स्पष्ट वाणी में अहम संदेश देकर 'शून्य' कला की दुनिया में कुछ नवीन जोड़ रहा है जो बहुत विशिष्ट और उपयोगी है। थियेटर के फलक पर मेहनत की स्याही से 'शून्य' एक बेहद ख़ूबसूरत गाथा रच रहा है और इस रचना-प्रक्रिया का साक्षी होने की ख़ुशी अनिर्वचनीय है।



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